रंगों के उल्लास में भरपूर
जीवन रंग तुम संजो गई
इस बार भी अपनी देह जलाकर
होलिका तुम अमर हो गई
सूना है तुम्हारी गोद में
एक नन्हा बालक प्रहलाद भी था
ब्रह्म वरदान चाहे था तुमको
वह बस नन्हीं जान ही था
अपने अहं में चूर होकर
तुम कैसे यह कहानी गढ़ गई
जिंदा तो शायद प्रहलाद रहा था
फिर अमर तुम कैसे हो गई
जले कितने ही नीरव,माल्या
इन पुतलों क्या जाता है
वजूद मानव खुद को रहा
त्यौहार हर वर्ष ही आता है
इन अनेकों रंगो से भरपूर
विषय जीवन उल्लास का है
अब कितने प्रहलाद होंगे
चाहत मानवता की प्यास का है
मानव मिटते हैं कितने ही
बात मानव पर आस की है
पुतले होते हैं कितने ही
बात वापस उनमें जान की है
अगले साल भी होलिका जलाओ
प्रहलाद बन आग में कूदना होगा
चिंगारी कितनी बड़ी बनेगी
यह तुम पर ही निर्भर करेगा
तंत्र में तुम खोट डालकर
नीरव ना तुम उपजा देना
होलिका तो जलेगी ही
अमर तुम ना बना देना
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