देखा है कभी चश्में को, नाक से लिपटते हुए
देखा है कभी बालियों को, कान से चिपकते हुए
जैसे गले में टाई और, हाथ में घड़ी लिपट जाती है
ऐसे ही बचपन तुझसे, जिंदगी लिपटना चाहती है
बस छोटे से कद तक, सिमटना चाहती है
खुशियों के दामन में, खोना चाहती है
जी फाड़कर नादानों सा, हंसना चाहती है
भीड़ से कहीं दूर ये जिंदगी, बचपन चाहती है
गिरे उठे जख्म लगे
उम्र की ठोकर पड़े
घाव हुए लालिमा छाई
बचपन तेरी याद आई
होश आया नज़रें अब, कमजोर हो चुकी हैं
फिदाओं की बहारें, कहीं खो चुकी हैं
खुशियां थी जो अपनों में, हिस्सों में बंट गई
कुछ पल बिताई यादें, धागों सी सट गई
आस कहीं दूर से, वह चिड़िया लौट आए
बो सकें कोई बीज, खुशियां लौटा जाए
डूबते सूरज को, रोज उगते देखा है
होश आया हो कहीं भी, खुशियों को लौटते देखा है
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