वह कतरा
कागज का
कितने अश्रु रोता है
जिसको समेटने
हर व्यक्ति
समर्पित रहता है
स्वचलित समय की
कितनी भारी मांग है
जब रोटी का टुकड़ा भी
उसी के नाम पर
बिकता है
एक और रोता है
उसके अलावा
जिसकी अब बारी है
कागज का टुकड़ा बनने की
आदमी का सुख,
चैन और
ईमान बेचने की।
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