
जगमग महलों सेझांकती खिड़कियांदेखती हैं,वीरान पड़ा शहरवह कांप उठीशहर की वीभत्सता देखकरजो डर के मारेमाँ के आंचल मेंछुप जाना चाहती हैपर कैसे,जर्जर पड़े मकानउसकी पीड़ा कुरेदते हैंमीनारों की चुप्पीउसे लहूलुहान कर देती हैबंजर पड़ी सड़कों परउसका खून रिसने लगता हैवह जानती हैसच सामने आने वाला हैयह सोचकर हीउसकी रूह थर्रा उठीऔर फिर चुपचापबड़े धीरे सेबिना शोर किएवो खिड़कियां बंद हो जाती हैंजैसे इस शहर मेंकुछ हुआ ही न होऔर खिड़कियों नेकुछ देखा ही न हो।
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