The words of deep emotion are here.

Wednesday, December 27, 2017

तांडव

धड़कने खौफ खाकर रुक जाती
फिर भी फौजें तेरी वापस न आती
शायद मुसर्रफ हारने तेरी फौजें आती
सदा हारकर ही वीरों से फौजें हैं तेरी जाती


यह कृति नहीं दीप्त स्वप्न है बोलता
मुझे तेरा भविष्य दिखता है सूली पर झूलता
क्यों तू उत्तरोत्तर सीमा है लांघता
तांडव को  क्यों अब तू पुकारता



लाश्य और तांडव दोनों हमने भी किए हैं
शायद तू यह सत्य नहीं जानता है
अभी तू भारतवासियों को नहीं पहचानता है
केवल सीमा लांघना ही तू जानता है


अपना विनास अपने मुंह पुकारता
क्यों अपने काल से पंगा ले डालता
इसका परीपाक क्या तू है जानता
तांडव के लिए हमें तू पुकारता

                            - विजय बूढ़लाकोटी
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