The words of deep emotion are here.

Thursday, March 08, 2018

अजनबी नदी

जो धाराएं निकलती हैं
उन पहाड़ों के बीच से
अपनी छाप छोड़ती
निकल जाती हैं भ्रमण पर
किसी अजनबी शहर के
कोई अनसुनी जगह के
जहां उनका अपना कोई नहीं होता
हर किसी का परायों सा व्यव्हार,
मगर पराया भी कोई नहीं होता
उसके शहर में प्रवेश करते ही
सिर में कूड़ा रख दिया जाता है
भला अतिथि देवो भव का भाव
न जाने कहां रह जाता है
कूड़े से लतपत
प्लास्टिक से लिपटी
और मल मूत्र में नहाई
धरा की प्यास बुझाती
मानव का संकट मिटाती


उस मां सम नदी को
अब बीच शहर पहुंच कर
फूलों से सजाया जाता है,
दूध में नहलाया जाता है,
और पकवानों का बीड़ा भी लगाया जाता है
शायद अब उसको थोड़ा झुठलाकर,
आंखों में पर्दा लगाकर
बेवकूफ बनाया जाता है
क्यूंकि अब मां स्वरूप नदी को
भगवान का दर्जा दिया जाता है,
पलकों में बिठाया जाता है,
सारे दुख उनको सौंपकर
दुखहरिणी बताया जाता है
इन जख्मों में मरहम कोशिश
रोज सुबह शाम की है
किसी दूर देश अजनबियों को
झुठलाते फरमान की है
इस पहले शहर धक्के खाकर
अब वो थोड़ा सहम सी जाती है,
थोड़ा लंगड़ा भी जाती है
और अजनबी शहर के
अजनबी शवों को ढोती
अपने को तैयार करती है
फिर किसी नए शहर की
प्यास और स्वार्थ खत्म करने के लिए
फिर किन्हीं नए प्रकार के
कष्टों को झेलने के लिए
जो शूल से चूभतें हैं
छालों से दूखते हैं
मगर इस बार छाप नहीं छोड़ते
अभी उनको तय करना है
हजारों अजनबी शहरों का सफर
और अस्तित्व को पहले ही खो चुकी नदी
अब दिखावे के लिए
समा जाती है एक खारे कोश में
एक नए संग्राम में
जहां केवल वातावरण खारा है
वहां के लोग नहीं
और शायद पहाड़ों तक पहुंची खबर
कुछ हद तक,सही थी
कि शहरों में अजनबी का
शोषण किया जाता है
और इससे बड़ा जीता जागता सबूत
लोगों को दिखाई नहीं पड़ता
शायद इस मामले में
पहाड़ के लोग संकुचित हैं
और होंगे ही
वहां हर एक की पहचान
अलग जो है

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