The words of deep emotion are here.

पंखे में धूल

Poetry comes from the highest happiness or the deepest sorrow. - A.P.J.ABDUL KALAM

Monday, April 30, 2018

टूटता तारा

जाने कितने टिमटिमाते तारे यूं ही टूट जाते हैं उस ऊंचे आकाश में जिनको देख आज भी बचपन की तरह दो अंगुल मिला लेता हूं आज भी कुछ सपने, कुछ ख्वाहिशें मांग लेता हूं यह सब मेरी मां ने मुझे सिखाया  और मौत के बाद  मेरी मां भी आसमां का एक तारा बनी जो आज भी खुद टूटकर मेरे सपने पूरे करती है और आज भी मेरी मां के एहसान  मुझ पर भारी है...
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Sunday, April 29, 2018

लोरी

मां,सुनो ना यह लोरियां क्या होती हैं? इस नई सदी का  एक नया सवाल जिसके जवाब में गूगल कुछ सुंदर से चित्रण दिखा देता, या कभी कुछ गाने जो किसी नए भाव को जोड़ने में असक्षम है मगर विरासत तो मां से आती है, पिता से आती है, घर से आती है, समाज से आती है, फिर इसको ना जानने में नई पीढ़ी का क्या दोष ...
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Friday, April 27, 2018

मनुष्य प्रगति

उन शमशानो में अब लाशें नहीं आती और कब्रिस्तानों में न जाने कब से नई कब्र भी नहीं बनी दोनों रूठे भाई बहन से अब कोई नहीं मिलता सुनने में आया था जमाना बदल गया अब घरों के अंदर ही शमशान मौजूद हैं बीच सड़कों में ही कब्रस्तान खुदने लगते हैं शायद मनुष्य प्रगति असीम है,अकल्पनीय है यहां तक कि खुदा भी नहीं सोच पाता Check another pos...
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जीवन की आस

वह बूढ़ा  बरगद का पेड़ गांव के बीच में किसी मीनार की भांति अंबर की ऊंचाई से निहारता चारदीवारी को मूर्छित पड़े शमशनो को मुर्दा कब्रिस्तानों को किसी तरह कोई मुझे काट एक छोटा सा मॉल बना दे ताकि कम से कम खुशी नहीं जीवन लौट तो आए  उस गांव मे...
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Tuesday, April 03, 2018

एक पत्थर

कहा ना मान गया हां हूं मैं पत्थर यही थी ना जिद तुम्हारी सही तो कहते हो हां हूं मैं पत्थर माना कि थोड़ा ठोस हूं मौसम का कोई असर नहीं पड़ता रोज की ठोकरों की फ़िक्र नहीं करता हां हूं ना,वही पत्थर जिसको भोर से पहले तुमने तालाब में फेंका था उस 'टप्प' की आवाज ने बस तुम्हारा ही दिल जीता था वही पत्थर जिसको पैरों से खेलते तुम मीलों चल जाते थे और अपने इस लंबे सफर का हमसफ़र बनाते थे वही पत्थर जिसने घर के कांच से माना थोड़ा बैर की...
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