The words of deep emotion are here.

Tuesday, April 03, 2018

एक पत्थर

कहा ना मान गया
हां हूं मैं पत्थर
यही थी ना जिद तुम्हारी
सही तो कहते हो
हां हूं मैं पत्थर
माना कि थोड़ा ठोस हूं
मौसम का कोई असर नहीं पड़ता
रोज की ठोकरों की फ़िक्र नहीं करता
हां हूं ना,वही पत्थर


जिसको भोर से पहले
तुमने तालाब में फेंका था
उस 'टप्प' की आवाज ने
बस तुम्हारा ही दिल जीता था
वही पत्थर जिसको पैरों से खेलते
तुम मीलों चल जाते थे
और अपने इस लंबे सफर का
हमसफ़र बनाते थे
वही पत्थर जिसने घर के कांच से
माना थोड़ा बैर की थी
मगर चमकदार(हीरा) होने पर
बड़ी रखवाली में सैर की थी
वही पत्थर जिनको तुम मिलाकर
सड़कों के नीचे बिछाते थे
या कभी उसको सिर पर रख
दो वक़्त की रोटी कमाते थे
जिसको बुनियाद  सांचा देकर
तुमने यह घर जोड़ा था
और शिल्प की प्रतिभा ने
जग का ध्यान खींच था
हां माना,माना कि मैं पत्थर हूं
सीमाओं में सैनिकों को आड़ देता हूं
माना कभी दूसरों के फेंकने पर
खून से भी रंग जाता हूं
नदियों के बहाव में बहकर
किनारों में जोर से पटककर
एक नया आकार तुम ही दोगे
थोड़ा लाल,पीला रंगकर
श्रद्धा से तुम ही पुजेगो
फिर कहां जाता है पत्थर
तुम्हारे उस दिमाग से
जो कल दिखाई तुम्हें देता
वह आज मेरे दिल में है
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