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Tuesday, January 02, 2018

बिन मंजिल का मुशाफिर

आज आंखों से दोबारा
आंसू छलके
जब अकेली चलती राहों ने
अपनेपन का एहसास कराया
एक बात इसमें 
बड़ी गौर करने वाली थी
उन राहों में
केवल एक मैं ही अकेला न था
सब अपनी राह में
अजनबी मुसाफिर की भांति


जा रहे थे न जाने 
कहां की जल्दी और
जिंदगी की उलझन ने
उन्हें अंधा बना दिया
वह अपनो को
पहचानने तक को तैयार न थे
और उनके परिवार
दो चार से बड़े न थे
उन चारों पर जो 
छत्रछाया होनी थी
वह किसी वृद्धआश्रम में
अपने दिन काट रही थी
या किसी
मझौले से गांव में
अपनों का इंतजार कर रही थी
सब के पास
केवल एक ही बहाना
सबने कुछ न कुछ 
खोया है
मगर जिसको वह
खोया कह रहे थे
वह असल में
एक मोती का पत्थर था
जिसको अनजाने में सब
जुगनू समझ बैठे थे।
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