The words of deep emotion are here.

Friday, February 16, 2018

पंखे में धूल

उस छत से लटकते पंखे में
समय समय पर 
कुछ धूल जम जाती 
और कभी कभी
कुछ जाले भी लग जाते 
जब भी मैं,सीधा लेट सो रहा होता
तो छत के उस दृश्य को देख 
एक डरावना एहसास होता 
मगर गर्मियों के आने से पहले
मुझे वह पंखा,हमेशा साफ करना पड़ता था 
कभी कभी ऐसा लगता था
जैसे वह पंखा मुझसे कुछ कहना चाहता हो
मगर मैं अभी छोटा ही था,नासमझ था
और जैसे जैसे मैं बड़ा हुआ 
मैंने एक बात और गौर की 
धूल जाड़ों तक आते-आते 
एक मोटी परत सी बना जाती 
और अगर एक भी
भिनभिनाती मक्खी उससे टकरा जाए
तो बिस्तर में बहुत धूल गिरा जाती
क्या करे,शहरों के कमरे थोड़ा छोटे होते हैं 
मगर एक दिन अचानक
गर्मियों में पंखा साफ करना 
सरकार के नए बजट सा लगा 
और जाड़ों में मोटी परत का जमना
तंत्र की बनावट सी लगी
वह मकड़ी के जाले
विदेशी संस्कृति का एहसास कराने लगे
वह पंखे से टकराती मक्खी
आतंकियों के गोले लगने लगे  
और वह गिरती धूल
देश के जवानों का शहीद होना लगने लगा
तब मुझे याद आया कि क्यों
मेरे दादाजी जब भी आते
मुझसे हमेशा पंखा साफ रखने को कहते 
मगर उसके बाद,आज भी
मैं पंखे की धूल साफ करना भूल जाता हूं
क्योंकि फिर वही आम आदमी की तरह
मुझे भी लगता है
कि मेरे पंखा साफ करने से क्या होगा
और एक छोटा सा
धूल से सना पंखा
पुरे देश की कहानी बयां कर जाता है

Share:

1 comments:

Indiblogger